हमलोगों का मन साधरणतया दो भागों
में विभक्त होता है। एक भाग बाहर का, दूसरा अन्दर का। मन का जो हिस्सा
बाहर का है, वह भद्र, सामाजिक और सभ्य होता है। अन्दर
का मन लेकिन हमेशा सभ्य एवं सामाजिक नहीं रहता, उसका चाल-चलन, उसकी विचार-प्रणाली विचित्र है।
बाहर वाले मन का क्रिया-कलाप देखकर अन्दर वाला मन कभी हँसता है, कभी रोता है और कभी राय देता है।
दोनों हिस्सों का आपसी कलह भी नित्यनैमित्रिक है।
रामकिशोर बाबू का अन्दर वाला मन
लम्बे समय से मृतप्राय है। बाहर वाले मन के अत्याचारों ने उसे जर्जर कर दिया है।
रामकिशोर बाबू वकील हैं। खूनी को बचाने के लिए झूठी गवाही गढ़ने का प्रयास, बड़े जमीन्दारों की तरफ से गरीब
प्रजा का सर्वनाश-साधन, जाली वसीयत बनाने का परामर्शदान, इत्यादि सभी कार्यों के लिए वे
बाहर वाले व्यवहारिक मन की सहायता लेते रहे थे। अन्दर वाले मन ने शुरू-शुरू में
तीव्र प्रतिवाद करके बहुत अनर्थ सृष्टि किया था; आजकल अब वह कुछ नहीं बोलता।
उसदिन सुबह रामकिशोर बाबू अपने
केशविरल मस्तक पर हाथ फेरते हुए बाग में चहलकदमी कर रहे थे। एक विधवा की सम्पत्ति
से सम्बन्धित एक मामला उन्हें कुछ दिनों से विव्रत कर रहा था। आज केस कोर्ट में
जायेगा, इसलिए वे जरा उद्विग्न
थे।
इसी समय एक प्रौढ़ सज्जन ने आकर
नमस्कार कर बताया कि वे किसी विषय में परामर्श लेना चाहते हैं। रामकिशोर बाबू उस
सज्जन को पहचानते नहीं थे। अतः निस्संकोच बोले, ”कोई कानूनी सलाह देने पर मैं फी
लेता हूँ, यह आप जानते हैं तो?“
”जी हाँ, कितना देना पड़ेगा आपको?“
”बत्तीस रुपये।“
”जी, बहुत अच्छा।“
दोनों बैठकखाने में जाकर बैठे।
आगन्तुक बोले, ”मेरे एक आत्मीय हैं, उनके एकमात्र लड़के का विवाह हुए
प्रायः दस साल हो गये हैं। सन्तानादि आज तक नहीं हुए हैं। सम्भावना भी कम है।“
”डॉक्टर को दिखाया था?“
”हाँ, उनका भी कहना है कि बच्चा होना
मुश्किल है।“
”लड़का स्वास्थ्यवान तो है?“
”हाँ, लड़के में कोई दोष नहीं है।“
”मुझसे आप किस विषय में परामर्श
चाहते हैं?“ कहकर
रामकिशोर बाबू ने नस्सीदानी से नस्सी की एक खुराक निकाली।
”इस सम्बन्ध में आपसे सिर्फ इतना
ही जानना है कि यदि वंशलोप ही हो जाय, तो अन्त में सम्पत्ति का हकदार
कौन होगा?“
नस्सी की खुराक को नासारंध्र से
खींचकर रामकिशोर बाबू बोले, ”लड़का जब स्वास्थ्यवान है, तो वह स्वछन्दता से दूसरा विवाह
कर सकता है। हिन्दू लॉ के अनुसार, इसमें कोई बाधा नहीं है।“
”सो तो खैर, नहीं ही है। लेकिन कानूनी बाधा न
होने पर भी हर वक्त क्या हर चीज करना सम्भव है?“
रामकिशोर बाबू जरा हँसकर बोले, ”सेण्टीमेण्ट के साथ चलने से
दुनिया में क्या चला जा सकता है महाशय? वो सब फालतू सेण्टीमेण्ट के कारण
ही तो हम आज डूबने जा रहे हैं।“
रामकिशोर बाबू ने भावुकता की
अपकारिता पर नातिदीर्घ एक वक्तृता दे डाला। बाहर वाले मन ने उन्हें तर्क एवं
वक्तव्य प्रदान किया। अन्दर वाला मन निर्वाक् रहा।
इस पर आगन्तुक ने कहा, ”मान लीजिये कि वे लोग लड़के का
दूसरा विवाह नहीं करते हैं, तब सम्पत्ति किसे मिलेगी?“
कानून के अनुसार जो-जो
उत्तराधिकारी हो सकते हैं, रामकिशोर बाबू उन सबके नाम एक साँस में बोल गये।
अन्त में अपना निजी मत वे दुहराना
वे नहीं भूले, ”लड़के
का दूसरा विवाह करा दीजिये महाशय। बाँझ पत्नी को लेकर गृहस्थी सुखी थोड़े ही होगी? बाल-बच्चे न रहे, तो गृहस्थी श्मशान है। मैंने
महाशय, जो उचित समझा, वह आपको बता दिया- आपके
सेण्टीमेण्ट को चोट पहुँची हो, तो माफी माँगता हूँ।“
आगन्तुक बोले, ”नहीं-नहीं, बिलकुल नहीं। आप स्पष्टवादी हैं
और मुवक्किल के सच्चे हितैषी हैं- यह सुनकर ही तो आपके पास आना हुआ है।“
बत्तीस रुपये देकर सज्जन ने विदा
ली।
चार-पाँच दिनों के बाद एकदिन एक
गाड़ी आकर रामकिशोर बाबू के घर के सामने रूकी। गाड़ी से एक युवती उतरकर अन्दर चली
गयी।
रामकिशोर बाबू विधूर हैं। घर में
महाराज-नौकरों की गृहस्थी चलती है। दोपहर में वे सब भी नहीं हैं- सिर्फ एक
छोकरा-सा नौकर था। रामकिशोर बाबू कोर्ट गये हुए थे। नौकर ट्रंक-बिस्तर वगैरह
उतारकर अन्दर ले गया। ट्रंक पर नाम लिखा था- ‘सरोजिनी देवी’।
व्यवहार से पता चला, छोकरा नौकर सरोजिनी देवी को
पहचानता नहीं था। इसके अलावे युवती के हाव-भाव से वह आश्चर्य में पड़ गया।
अन्दर वाले बरामदे पर बॉक्स-बिस्तरबन्द
रखकर सरोजिनी ने नौकर से एकबार पूछा, ”बाबू कहाँ हैं?“
”कचहरी में।“
”कब तक लौटेंगे?“
”पता नहीं।“
वे बरामदे में अपने बक्से पर
बैठी रहीं।
रामकिशोर बाबू कोर्ट से लौटकर
अवाक रह गये, ”यह
क्या सरो, तुम अचानक बिना खबर किये
आ गयी?“
”उस घर में अब रहना अब सम्भव नहीं
है।“
”क्यों बात क्या है?“
रामकिशोर बाबू बेटी के व्यवहार
से क्रमशः विस्मित हो रहे थे।
”रहना सम्भव नहीं है, क्या मतलब है?“
”वे लोग उनकी दूसरी शादी करने जा
रहे हैं। आपने भी सहमति दी है।“
”मैंने सहमति दी- क्या मतलब?“
”उनलोगों ने एक अपरिचित व्यक्ति
को आपके पास भेजकर आपका सही मत ले लिया है। आपने शायद कहा है- लड़के का विवाह कर
देना ही ठीक रहेगा!“
रामकिशोर बाबू के नेपथ्यवासी
भीतर वाले मन ने अब बाहर वाले मन की गर्दन धर दबोची।
अचम्भित रामकिशोर बाबू अपनी
एकमात्र कन्या के चेहरे की तरफ असहाय भाव से देखते रहे।
सरोजिनी ने पूछा, ”आपने सही में ऐसा कहा है पिताजी?“
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