त्रिगुणानन्द बाबू सिर्फ त्रिगुण
नहीं, बल्कि बहुत सारे गुणों
से सम्पन्न थे। प्रचण्ड धार्मिक- प्रचण्ड संयमी, जबकि उम्र चालीस से कम। शरीर पर
वे बहुत ध्यान देते थे। प्रतिदिन मुग्दर भाँजते थे- तीनबार दन्तधावन करते थे-
दोनों बेला स्नान करते थे। पहलवान-जैसा स्वास्थ्य था। पढ़े-लिखे भी थे- सुना है,
बी.ए. पास थे। दरिद्र
नहीं थे- खाने-पहनने की स्थिति थी, नौकरी करने की जरूरत नहीं पड़ती।
पैतृक खेतीबाड़ी जितनी थी, उसी में काम चल जाता था। हाथ में
दो पैसे भी रहते थे। किन्तु त्रिगुणाबाबू की प्रसिद्धि का प्रधान कारण था- उनकी मौलिकता।
और उनकी मौलिकता में मूल में था- किसी भी काम को पक्के तरीके से पूरा करना।
उनकी दैनन्दिन जीवन-यापन प्रणाली
संक्षेप में इस प्रकार थी। वे सोकर उठते थे बहुत ही सवेरे। उठते ही कार्बोलिक लोशन
में डुबोये दतवन से दाँत साफ करते थे। इसके बाद करते थे व्यायाम। मुग्दर,
डम्बल,
डेवेलपर। आधे घण्टे
व्यायाम के बाद वे पसीने से तर शरीर के साथ पास की नदी में जाकर स्नान करते थे।
स्नान कर भैरव राग में एक भजन
गाते हुए वे घर लौटते थे। क्या शीत, क्या ग्रीष्म- प्रातःकाल में
स्नान उन्हें करना ही था। घर लौटकर वे स्टोव जलाते थे।
आपलोग सम्भवतः सोचेंगे,
चाय बनाने के लिए।
मगर नहीं। किसी भी प्रकार के
मादक द्रव्य के आदि वे नहीं थे। स्टोव जलाकर वे भात चढ़ा देते थे। स्टोव के निकट
बैठकर उन्हें जप करना होता था। प्राणायाम भी वे करते थे। अर्थात् सूर्योदय के
पूर्व ही त्रिगुणाबाबू का स्नान, जप, आहार, सबकुछ सम्पन्न हो जाता था।
कम्प्लीट।
उनका कहना था- जब खाना ही है,
अनाहार रहना मनुष्य के
साध्यातीत ही है, तब इस बखेड़े को सुबह-सुबह निपटा लेना ही युक्तिसंगत है।
अब सारा दिन कितना समय मिल
जायेगा!
आहारादि शेष कर वे एक जोड़ा
मिलिटरी बूट परिधान करते थे। मिलिटरी बूट पहनने से और जिन सब आनुषांगिक परिच्छदों
का परिधान करना साधारण लोग संगत समझते हैं, त्रिगुणाबाबू उनकी परवाह नहीं
करते थे। वे बूट पहनते थे सिर्फ बखेड़ा मिटा डालने के लिए। एकबार सुबह-सुबह उठकर
फीता कसकर पहन लेने के बाद- बस निश्चिन्त।
कोई अन्य जूता पहनने से बार-बार
खोलो और पहनो- खोलो और पहनो। कितना समय नष्ट होता है।
इसके बाद तसर के कपड़े की धोती
बाँधकर वे निकल पड़ते थे। तसर के कपड़े के प्रति वे पक्षपात रखते थे- कारण वही एक।
एकबार खरीद लेने से कुछ दिनों के लिए निश्चिन्त।
और भी दो चीजें उनके साथ रहती
थीं।
एक मोटे बाँस की लाठी। ऐसी-वैसी
लाठी नहीं। खासी मजबूत, तेल पिलायी हुई,
गाँठ-गाँठ पर लोहे के
तार लिपटी समर्थ एक लाठी। और रहता था चमड़े का एक बड़ा बैग- पोस्टमैन जिस तरह का बैग
कन्धे से लटकाकर पत्र बाँटते फिरते हैं- उसी प्रकार का। बैग को वे भी कन्धे से
लटका लेते थे। बैग में उनकी नाना प्रकार की प्रयोजनीय वस्तुएँ रहती थीं। यथा-
पेन्सिल, सजिल्द नोटबुक, सूखे खजूर,
टिंचर आयोडिन,
इत्यादि।
इनके अलावे,
उनके सिर पर एक टोपी
रहती थी, जो टोपी पहनकर कृषकगण खेतों में काम करते हैं। रौद्र-वृष्टि से
निराकरण के लिए अच्छी मजबूत किस्म की एक टोपी त्रिगुणाबाबू ने कृषकों द्वारा ही
बनवा ली थी। छाते का बखेड़ा मिट गया था। सभी विषयों में पक्के तरीके से और बखेड़ा
मिटाते हुए काम करना ही त्रिगुणाबाबू की विशेषता थी। दाढ़ी-मूँछों के मामले में भी
उन्होंने बखेड़ा मिटा डाला था। अर्थात् इनपर उन्होंने हस्तक्षेप नहीं किया था। अपनी
मर्जी से बढ़ते हुए उनकी दाढ़ी-मूछों ने न केवल उनका चेहरे, बल्कि उनके सीने को भी ढाँप लिया
था।
त्रिगुणाबाबू कुर्ता नहीं पहनते
थे।
प्रश्न करने पर मोटी,
घनी भौंहों के अन्धकार
में अवस्थित उनकी छोटी-छोटी आँखें दोनों हास्य-दीप्त हो उठती थीं। कहते,
”ग्रीष्मप्रधान देश में
कुर्ता एक बखेड़ा नहीं है क्या?“
सभी स्वीकार करते- बखेड़ा है।
बाँस की लाठी भीषणदर्शन थी।
त्रिगुणाबाबू स्वयं भी क्रोधी
व्यक्ति थे।
अतः बखेड़ा खड़ा करके लाभ क्या?
इस प्रकार,
जब पैरों में मिलिटरी
बूट, फेंटा कसी हुई धोती,
जनेऊ पहने,
नग्नगात्र,
बलिष्ठ,
बखेड़ा-विरोधी
त्रिगुणाबाबू हाथ में बाँस की लाठी लिये, कन्धे से चमड़े का बैग लटकाये और
सिर पर टोपी पहने रास्ते पर निकलते थे, तो यह वास्तव में देखने योग्य एक
दृश्य होता था।
बहुत लोग हँसते थे।
बहुत मजाक उड़ाते थे।
बहुतेरे प्रणाम भी करते थे।
हालाँकि त्रिगुणाबाबू इन बातों
को ग्राह्य ही नहीं करते थे।
लोगों की स्तुतिनिन्दा उनके लिए
सदा से ही उपेक्षा की बातें थीं।
स्त्री? बहुत पहले ही आत्महत्या कर चुकी
थीं।
त्रिगुणाबाबू के दो बेटे जरूर
थे। वे अपने मामाघर में पल रहे थे। उनके नामकरण में भी त्रिगुणाबाबू की मौलिकता का
परिचय मिलता है।
एक का नाम रखा था,
राय बहादूर और दूसरे का
राय साहब।
उनका कहना था- ”क्या पता,
भविष्य में राय बहादूर
और राय साहब की पदवी पाने के लिए बेटे जी-जान लगा दें। सो, पहले से ही बखेड़ा मिटा डालना ही
ठीक है।“
--दो--
अरुणोदय बेला में ही आहारादि
सम्पन्न कर त्रिगुणाबाबू चार क्रोश दूरवर्ती किशनपुर ग्राम में चले जाते थे। वहाँ
उन्होंने एक विद्यालय खोल रखा था।
उद्देश्य,
ग्राम के बालक एवं युवक
वृन्द को ब्रह्मचर्य की शिक्षा देना। त्रिगुणाबाबू ब्रह्मचर्य की उपयोगिता के
प्रति आस्थावान थे। उनका दृढ़ विश्वास था, हमारे देश में अगर सभी
ब्रह्मचर्य के मर्म को सम्यक भाव से ग्रहण कर लें, तो हमलोगों की दुःख-दुर्दशा का
तुरन्त लोप हो जायेगा। किसी काम को पक्के ढंग से करना ही उनका नियम था।
अतः वे अल्पवयस्कों को,
विशेषकर बालकों को
शिक्षा देने में लग गये।
आप यदि पूछें- इसके लिए उन्हें
चार क्रोश दूर क्यों जाना पड़ता है? स्वयं के ग्राम में क्या बालक
नहीं थे?
थे।
किन्तु कोई उन्हें गम्भीरता से
नहीं लेता था।
गाँव का जोगी जोगड़ा- यह कहावत तो
सुविदित है।
चार क्रोश दूर उस ग्राम में
त्रिगुणाबाबू की कयेक बीघा जमीन बँटाई पर थी। लोगों पर उनका प्रभाव भी था।
अतः उनके पुत्रों को वे अनायास
ही छात्र के रूप में पा गये थे। बालकगण सुबह से नौ बजे तक उनसे ब्रह्मचर्य विषयक
उपदेश लाभ कर फिर स्थानीय विद्यालय में मामूली पढ़ाई-लिखाई सीखने जाते थे।
एक विशाल वटवृक्ष के नीचे ही
उपवेशन कर त्रिगुणाबाबू अपनी उपदेशावली वितरण करते थे।
एकदिन अचानक आँधी-वर्षा के कारण
बखेड़ा पैदा हो गया। त्रिगुणाबाबू ठहरे बखेड़ा-विरोधी।
अतः बखेड़ा मिटाने के लिए कमर
कसके भिड़ गये। द्वार-द्वार चन्दा उगाहने के लिए घूम रहे हैं। उस वटवृक्ष के नीचे
ही एक पक्का कमरा बनवाना पड़ेगा।
--तीन--
किन्तु अकस्मात् एक नया बखेड़ा
खड़ा हो गया।
एकदिन प्रातःकाल त्रिगुणाबाबू ने
जाकर देखा, ब्रह्मचर्य-लोलुप उनके समस्त छात्रवृन्द वटवृक्ष की जड़ के पास
गोलबन्द होकर तन्मयचित्त से एक मासिक पत्रिका का पाठ कर रहे हैं।
त्रिगुणाबाबू के आते ही घबड़ाकर
वे लोग उठ खड़े हुए। मासिक पत्रिका नीचे गिर गयी।
उठाकर देखा उन्होंने।
उनकी आँखें फटी रह गयीं।
आवरण पर तरंगाकार अक्षरों में
लिखा था- ‘मरमी’।
अगला पन्ना पलटते ही एक नग्न
नारीमूर्ति।
इसके बाद एक कविता।
कविता का छन्द समझ से बाहर था-
अर्थ किन्तु स्पष्ट था।
पढ़ते ही मौलिक त्रिगुणाबाबू भी
एक अत्यन्त अमौलिक उत्तेजना से उद्दीप्त होने लगे।
इसके बाद ही एक कहानी-
एक दुबला-पतला लड़का एक साथ चार
तरूणियों के साथ इश्क फरमा रहा है। यह तो भयानक काण्ड था!
पत्रिका से मुँह उठाकर
त्रिगुणाबाबू ने देखा- सब खिसक गये थे।
एक भी छात्र नहीं था।
--चार--
उसी दिन त्रिगुणाबाबू कोलकाता
चले गये। इसके ठीक दो दिनों बाद जो संवाद चतुर्दिक प्रचारित हो उठा,
वह वास्तव में
आश्चर्यजनक एवं रोमांचक था। वह था-
‘मरमी’ पत्रिका के सम्पादक गम्भीर रूप
से घायल होकर अस्पताल में अवस्थान कर रहे हैं। उनका सिर फूट गया है।
चित्रकार निधिराम बसाक भी
अचेतावस्था में शैयाशायी हैं। उनके सिर की चोट भी गम्भीर है।
कथाकार सुजित सेन का दक्षिण हस्त
शोचनीय ढंग से क्षत हुआ है। डॉक्टरों का कहना है, उसे काटकर अलग नहीं करने से उनका
जीवन संकट में पड़ सकता है।
कवि अमिय पालित की मृत्यु हो
चुकी है।
एक भीषणदर्शन व्यक्ति ने
अकस्मात् ‘मरमी’
ऑफिस में घुसकर बिना
किसी कारण के ही उक्त मनस्वी-चतुष्टय पर आक्रमण कर दिया और एक बाँस की लाठी द्वारा
गम्भीर रूप से उनपर प्रहार करता रहा। लोगों के जमा हो जाने बावजूद कोई उस गुण्डे
को पकड़ नहीं पाया। वह सबसे हाथ छुड़ाकर भीड़ में अदृश्य हो गया।
पुलिस अनुसन्धान चल रहा है।
समझ गया, और कोई नहीं- त्रिगुणाबाबू ही
हैं।
बखेड़ा मिटा डालना चाहा होगा
उन्होंने।
--पाँच--
त्रिगुणाबाबू निरूद्देश्य हैं।
उनके बार में सटीक जानकारी किसी
के पास नहीं थी।
नाना प्रकार की अफवाहें फैलने
लगीं।
कोई कहने लगा,
वे युवा साहित्यिकगणों
को उचित शिक्षा देने के लिए चट्टग्राम अँचल में एक टेररिस्ट दल का गठन कर रहे हैं।
किसी के मतानुसार,
वे भारतवर्ष में ही नहीं
हैं- खलासी की वेश में जहाज में चढ़कर रशिया चले गये हैं।
और एक दल दृढ़भाव से कहने लगा- ये
सब फालतू बातें हैं, वे पॉण्डिचेरी में जाकर श्री अरविन्द के शिष्यदल में शामिल हो गये
हैं।
इसी प्रकार की भिन्न-भिन्न
बातें।
लोग लेकिन एक ही बात को लेकर ज्यादा
दिनों तक मुखर नहीं रहना चाहते।
वे धीरे-धीरे त्रिगुणाबाबू की
बातें छोड़कर अन्यान्य बातों में रम गये।
त्रिगुणानन्द-अफवाह-भाराक्रान्त
दिवस क्रमशः कालसमुद्र में विलीन होने लगे।
देखते-देखते एक साल बीत गया।
लोग त्रिगुणाबाबू को भूलने लगे।
यहाँ तक कि पुलिस भी।
--छह--
मेरे मन में भी जब त्रिगुणाबाबू
की स्मृति अस्पष्ट हो रहीं थी, तब एक चिट्ठी मिली।
त्रिगुणाबाबू की चिट्ठी।
लिखा है-
”भाई,
अनेक दिनों बाद मेरी चिट्ठी पाकर
सम्भवतः विस्मित होगे। विस्मय की कोई बात नहीं- इतने दिनों तक आत्मप्रकाश करना
सम्भव ही नहीं था। कोलकाता में जो काण्ड किया था- अखबारों के मार्फत- आशा करता हूँ,
उससे अवगत हो। बाद में
समझा, वह काण्ड करके भूल किया मैंने। बखेड़ा इतनी आसानी से मिटनेवाला नहीं
है। मैंने जिस तरह से उसे मिटाना चाहा था, उस हिसाब से तो कोलकाता सहित सभी
का खून करना पड़ेगा। कोलकाता शहर में जहाँ कहीं जितनी भी मासिक पत्रिकायें बिकती
हैं, सबके पन्ने पलट डाले हैं मैंने। समस्त स्टॉल का परिदर्शन कर,
सिनेमा देखकर,
एवं आधुनिक
युवक-युवतियों के संस्पर्श में आकर यह धारणा ही मेरे मन में बलवती हो रही थी कि
रक्तपात का रास्ता चुनने से सभी को समाप्त करना होगा,
किसी को नहीं छोड़ा जा
सकता। ठग चुनकर बाहर करने के लिए ग्राम उजाड़ना पड़ता है। किन्तु कोलकाता को उजाड़ना
मेरे बस के बाहर की बात है। अतः वह पथ मेरे लिए अप्रशस्त है। पुलिस के भय से
आत्मगोपन किये रहता था- बीच-बीच में सिनेमा देखता था और चिन्ता करता था कि किस तरह
बखेड़ा मिटाया जाय। यही यदि देश की प्रगति है, तो फिर,
इस प्रगति का अन्तिम
परिणाम देखने के लिए शेषपर्यन्त कोई बचा रहेगा क्या?
नहीं रहेगा यही मेरा
विश्वास था।
इस अवस्था में कौन-सा पन्थ
अवलम्बन करना युक्तिसंगत होगा, यही एक रात सोये-सोये चिन्ता कर
रहा था। ऐसे समय में महसूस हुआ, मानस-पटल पर सिनेमा-दृष्ट एक
नायिका की मुखाकृति उभर रही है। वह मुखड़ा मानो मेरे चेहरे की तरफ देखकर मन्द-मन्द
मुस्कुरा रहा था।
कहने की जरूरत नहीं,
मैं परेशान हुआ।
खैर,
ईश्वरेच्छा से कुछ
क्षणों बाद ही वह चेहरा मन से हट गया। निश्चिन्त होकर मैं सो गया। किन्तु सोते ही
पता चल गया कि बखेड़ा मिटा नहीं है- कारण, साथ-ही-साथ एक स्वप्न देखा।
स्वप्न में जो घटित हुआ, वह मैं नहीं लिख सकता। सिर्फ
इतना समझ लो कि वह अवर्णनीय था।
हड़बड़ा कर मैं उठ बैठा। देखा,
सर्वांग पसीने से नहा
उठा है और हृ्त्पिण्ड धौंकनी के समान धड़क रहा है। स्वप्न के भय से सारी रात जागता
रहा। किन्तु पाया, जागकर भी निस्तार नहीं है- वह
मुखड़ा क्रमागत रूप से मन के अन्दर आना-जाना करने लगा।
इसी तरह दिन निकला। अब किसी दिन
सिनेमा में देखी नायिका, किसी दिन पत्रिका में देखी छवि,
किसी दिन रास्ते में
देखी युवती- कोई न कोई एक प्रतिदिन ही स्वप्न में आकर दिखायी पड़ने लगी।
अब क्या बताऊँ भाई,
अन्त में तंग आ गया।
भय भी हुआ। चिन्ता करने लगा- इस
अवस्था में प्रतिकार क्या है? बीच-बीच में क्रोध भी आता;
लेकिन स्वप्न के सिर पर
तो लाठी नहीं चलायी जा सकती। मायाजाल में उलझ गया मैं। बाघ के गुफा में बटेर का
बसेरा- इस कहावत को मर्म से अनुभव करने लगा।
इसी तरह दिन बीतते रहे। क्रमशः
यह सत्य ही मेरे सामने उजागर होने लगा कि मन की कामना मरी नहीं है। सो रही थी। वही
सुप्त कामना अभी क्षुधित होकर जाग उठी है और अपना आहार माँग रही है।
क्या उपाय किया जाय,
यही चिन्ता करने लगा।
एकदिन सहसा एक पौराणिक कहानी याद
आयी।
गंगा की बहाव में ऐरावत भी बह
गया था।
बहाव की चपेट में आने पर
महाशक्तिशाली भी बह जाते हैं।
आशा करता हूँ,
कहानी तुम जानते हो।
...अतः कालविलम्ब न कर मैंने बखेड़ा
मिटा डाला है। कुछ अर्थव्यय करने से पुलिस का बखेड़ा भी मिट गया है। परसों मैं गाँव
पहुँच रहा हूँ। तुम मेरा मकान साफ-सुथरा करवा के रखना। सम्भव हो,
तो दीवारों पर सफेदी भी
करवा देना। कहने का तात्पर्य, चतुर्दिक सबकुछ स्वच्छ रहना
चाहिए। साक्षात् होने पर विस्तृत आलोचना की जायेगी।
इति- त्रिगुणानन्द।“
--सात--
ऐरावत आ रहे हैं।
स्टेशन गया।
यथासमय ट्रेन आयी और ऐरावत ने
अवतरण किया।
साथ में एक आधुनिका-फैशनपरस्त
छरहरी युवती।
ऐरावत का चेहरा देखकर विस्मित हो
गया।
ऐरावत ‘क्लीन-शेव्ड’
थे- दाढ़ी-मूँछें सफाचट।
सिर के बाल करीने से काढ़े हुए।
मुँह में सुन्दर पाईप से लगा
ज्वलन्त एक सिगरेट।
शरीर पर था मुलायम रेशम का कुर्ता
और जरीदार महीन धोती। पैरों में पेटेण्ट लेदर का चमकदार काला पम्प-शू! कलाई पर
सोने की रिस्टवाच।
सारे शरीर से एसेन्स की खुशबू
निकल रही थी। मैं चकित होकर देखता रह गया।
सजग हुआ, जब त्रिगुणानन्द बोले,
”मुँह खोलकर क्या देख रहे
हो? ये तुम्हारी भाभी हैं।
बखेड़ा मिटा डाला है।“
झुककर भाभीजी की पदधूलि ग्रहण
किया।
--:0:--
कोई टिप्पणी नहीं:
टिप्पणी पोस्ट करें