फ्रेंचकट दाढ़ी, देवानन्द
टाईप जुल्फें, पहनावा
विचित्र लुंगी, मुँह
में सर्वदा प्यांज-लहसु की गन्ध- ऐसे व्यक्ति का नाम है, राधावल्लभ।
पितामह-प्रदत्त नाम। कहते हैं कि रुस में नाम बदलने की सुविधा है। अपने देश में भी
अनेक छात्र-छात्रायें मैट्रिक परीक्षा देने से पहले अपनी पसन्द के मुताबिक नामकरण
कर लेते हैं। राधावल्लभ को मैट्रिक देने का मौका एकबार मिला जरूर था, किन्तु नाम बदलने की बात
उनके ध्यान में ही नहीं आयी। धरती पर ऐसी अनहोनी क्यों घटती है, बताना कठिन है। इस दुरुह
गवेषणा की ओर प्रवृत्त न होकर मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि राधावल्लभ नाम जरा
और आधुनिक होता, तो मेल
अच्छा बैठता। क्योंकि राधावल्लभ सचमुच ही एक आधुनिक युवक हैं। विचार, पोशाक, बातचीत और विशेषकर
उपार्जन के मामले में राधावल्लभ एकदम अति-आधुनिक हैं। ब्रिज एवं फ्लैश खेलने में
सुदक्ष। इसीसे उनकी आय भी होती है। आय होती है, इसलिए राधावल्लभ के मामा
राधावल्लभ के सामने कृतज्ञ हैं। क्योंकि सिगरेट-सिनेमा का खर्चा अब उनको वहन नहीं
करना होता है। यह भी कोई कम लाभ का सौदा नहीं है।
--दो--
मैट्रिकुलेशन परीक्षा में फेल करने के बाद से राधावल्लभ यौवन-चर्चा
में व्यस्त हो गये। यौवन-चर्चा का तात्पर्य आजकल के पाठक-पाठिकागण अवश्य ही समझते
होंगे। विस्तृत विवरण की आवश्यकता नहीं है। निरंकुश भाव से उनकी यौवन-चर्चा चल रही
थी कि अचानक एकदिन बेचारे मार खा गये।
महादेव पर तीर चलाने वाले दुष्ट देवता (कामदेव- मदन) ने अचानक
एकदिन राधावल्लभ पोद्दार को लक्ष्य करके अपना अव्यर्थ शर-सन्धान किया। मदनाहत
महादेव ने मदन को भस्म कर डाला था, यह तो
सुविदित है। मगर मदनाहत राधावल्लभ पोद्दार ने जो किया, यह शायद बहुतों को पता नहीं
है। मुझे पता है। किंकर्त्तव्यविमूढ़ होकर बेचारे ने उधार में थोड़ा स्नो खरीद लिया।
आईना, स्नो
और राधावल्लभ, जब
तीनों परस्पर निमज्जित हो रहे थे, तब
पितामह प्रजापति (ब्रह्माजी) ने भ्रुकुटि कुटिल कर पैर की खड़ाऊँ उतारना शुरू कर
दिया, इसका
विन्दुमात्र भी आभास आवेग-जर्जरित राधावल्लभ को नहीं हुआ।
--तीन-
पूँटी नाम्नी युवती उसदिन राधावल्लभ के हृदय-नाट्यनिकेतन में बिना
नोटिस के धड़ाम-से अवतीर्ण हो गयी- ट्राम की खिड़की के रास्ते। पृथ्वी पर कब, क्या, कैसे घट जाय कहना दुष्कर
है। पूँटी का आकर्षण अवश्य ही उसकी उम्र थी। लेकिन वह उम्र वास्तव में थी कितनी-
सोलह या छब्बीस- इसका सटीक निर्णय करने से पहले ही राधावल्लभ मुग्ध हो गये। एकबार
मुग्ध हो जाने के बाद फिर कोई चालाकी नहीं चलती। मन रूपी अश्व के मुँह से मनुष्य
तब तर्क रूपी लगाम उतार फेंकने के लिए विवश हो जाता है। घोड़ा चारों पैर उछालकर
कूदने लगता है। हुआ भी यही। मुग्ध राधावल्लभ लुब्ध भाव से हैरिसन रोड में घूमने लगे।
हालाँकि मामला कोई इतना असामान्य भी नहीं था। ऐसा तो कितनी ही बार हुआ था। हैरिसन
रोड के ट्राम में आते समय कितनी बार कितनी लड़कियों को राधावल्लभ ने देखा था। लेकिन
उस द्वितलवासिनी, गवाक्षवर्तिनी
पूँटी को देखते मात्र ही उसके अन्तर की समस्त तंत्रिकायें मानो एकसाथ बोल उठीं, मोनालिसा! आधुनिक
उपन्यासकारों की सभी नायिकायें मानो राधावल्लभ के मन-प्राँगण में आकर शंख हाथों
में लेकर पंक्तिबद्ध हो गयीं- पूँटि को वरण करने के लिए। ऐसा तो पहले नहीं हुआ था।
इतनी बड़ी विपत्ति राधावल्लभ के जीवन में कभी नहीं आयी थी। कहते हैं
कि प्रेम हो जाने पर (चाँद की) ज्योत्स्ना उत्तप्त तथा (सूर्य की) रौद्र हिमशीतल
लगने लगती है। राधावल्लभ की स्पर्श शक्ति में तो ऐसा कोई परिवर्तन नहीं आया, मगर उसे जनबहुल हैरिसन
रोड नितान्त निर्जन मालूम पड़ने लगा। उस दुमंजिले मकान के अलावे हैरिसन रोड में और
कुछ भी नहीं है, बाकी
सब हवा है- प्रेमाक्रान्त राधावल्लभ को ऐसा ही प्रतीत होने लगा। इस धारणा से
वशीभूत होकर ही सम्भवतः राधावल्लभ उस दिन हैरिसन रोड के ठीक बीचों-बीच निडर खड़े
होकर मुँह उठाकर सीटी के माध्यम से पूँटी से प्रेम-निवेदन कर रहे थे। इसी समय
पितामह प्रजापति (ब्रह्माजी) की खड़ाऊँ आकर लगी। कहाँ लगी, यह ठीक से देखने से पहले
ही बेचारे अचेत हो गये।
खड़ाऊँ ‘लॉरी’ के रूप में आयी थी।
--चार--
दयालु होने के कारण प्रातःस्मरणीय विद्यासागर
महाशय कई बार कष्ट में पड़े थे। दयालु रामकिंकर हाजरा भी हुए। दया करके ही हाबलि, मिण्टा, पल्टू, विशू, खोकन के पिता- छह
प्राणियों के पालनहार- हाजरा महाशय ने अचेत राधावल्लभ को उठाकर अपने घर के बाहर
वाले कमरे में स्थान दिया। पड़ोस के नये-नवेले डॉक्टर को बुलाकर भी लाये। डॉक्टर
साहब राधावल्लभ का निरीक्षण कर बोले,
"इनको हिलाना-डुलाना उचित नहीं है। हिलाने-डुलाने से इनकी जान
भी जा सकती है।" अतः राधावल्लभ
को अस्पताल भेजने की उदीयमान इच्छा का दमन कर दयालु रामकिंकर बाबू ने घर में ही
उसकी सुश्रुषा का बन्दोबस्त किया। मन में दया का संचार होने पर पैसा खर्च होना
अनिवार्य है। रामकिंकर बाबू को गाँठ का पैसा व्यय कर नौजवान डॉक्टर के
निर्देशानुसार एक आईस-बैग खरीदना पड़ा। हालाँकि रामकिंकर बाबू के मन में दया का
संचार हुआ था, तथापि
उन्होंने मन-ही-मन कहा, बुरे
फँसे!
--पाँच--
दो दिनों बाद अचेत
राधावल्लभ को होश आया।
आँखें खुलने पर देखा, सामने पूँटी नहीं, हाबलि खड़ी है।
उसने आँखें बन्द कर लीं।
कुछ देर बाद फिर खोलकर
देखा, पूँटी
नहीं, हाबलि।
फल का रस बना दिया हाबलि
ने।
दवाई खिलाया हाबलि ने।
पूँटी कहाँ है?
रामकिंकर बाबू ने आकर पूछा, "आज कैसी तबियत है?"
"आज कुछ ठीक है।" -कितना मधुर स्वर था हाबलि
का!
सिरहाने पर बैठकर पंखा
झलती है हाबलि।
कभी सिर, कभी पीठ सहला देती है
हाबलि।
बिस्तर, कपड़े-लत्ते सम्भालती है
हाबलि।
सब हाबलि।
और भी दो-तीन दिन बीत
गये।
अब पूँटी नहीं है।
सिर्फ हाबलि।
फिर खड़ाऊँ दिखी।
इसबार छद्मरूप में नहीं, वास्तव में।
रामकिंकर हाजरा के हाथ
में।
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