विदा लेने से पूर्व
विनम्र नमस्कार कर वे सज्जन बोले, ”उस मोड़ पर डिस्पेन्सरी खोला हूँ मास्साब, कभी पधारियेगा- “
”अच्छा।“
...स्मृतिपटल पर कई छवियाँ
तैरने लगीं।
पुरातन छवियाँ।
***
मैं ट्यूशनी करता था।
बी.ए. में कई बार फेल
होने के कारण ही हो, या स्वामी चिन्मयानन्द के सत्संग का लाभ ही हो- मैं आध्यात्मिक हो
चला था। स्वामी चिन्मयानन्द के चरणकमलों में बैठ कर हिन्दू धर्म के अनेक गूढ़
तत्वों का मैं श्रवण करता था। सोचता था, कर्म जगत में चाहे जो हो, धर्म जगत में हिन्दू
अपराजेय हैं। प्रतिदिन स्वामी जी धार्मिक एवं आध्यात्मिक जो प्रवचन करते थे, वे सब इस कथा के लिए
अवांछनीय हैं। सिर्फ प्रासंगिक बातें ही सुनिये।
एक दिन वे पूर्व-जन्म
रहस्य पर सारगर्भित प्रवचन कर रहे थे। ऐसी कौतूहलोद्दीपक वार्ता मैंने इससे पूर्व
नहीं सुनी थी। वह एक अद्भुत वार्ता थी!
मैं अत्यन्त आकृष्ट हुआ।
स्वामी जी की वक्तृता समाप्त होने पर मैं पीछे पड़ा- पूर्व-जन्म का रहस्य जानने का
पथ बताना ही होगा।
शुरु में उन्होंने
आपत्ति की।
मैं भी पीछे पड़ गया।
अन्त में उन्हें बताना
पड़ा।
उनके उपदेशानुसार
मुदितनेत्र से नानाविध यौगिक प्रक्रियायें मैंने शुरु की।
जन्म-जन्मान्तर का रहस्य
उद्घाटन करना ही होगा।
***
छात्र को पढ़ा रहा था।
”‘साधू’ शब्द का चतुर्थी में
बहुवचन क्या होगा?“
नहीं बता पाया।
”‘मुनि’ शब्द का द्वितीया में
द्विवचन क्या होगा?“
नहीं सका।
”‘नर’ शब्द का द्वितीया में
एकवचन क्या होगा?“
काफी देर तक सिर खुजाकर
एक उत्तर दिया- भूल उत्तर। एक झापड़ लगाकर मैंने ‘उपक्रमणिका’ फेंक दिया।
...ऐसा रोज होता था।
***
अचानक मन में आया, देखा जाय कि यह छोकरा
पिछले जन्म में क्या था। मुझे विश्वास था कि गधा या बैल रहा होगा। स्वामी जी
द्वारा प्रदर्शित प्रक्रिया का अनुसरण कर इस कौतूहल का निवारण करना तो बहुत ही सहज
था।
उस दिन गहन नीशीथ में
योगासन में उपवेशन कर मुदित नेत्रों के सम्मुख रूद्धश्वांस से अपने छात्र के
पूर्वजन्म की मूर्ति का निरीक्षण कर मैं चौंक उठा।
यह क्या- यह तो
विद्यासागर हैं!
प्रातःस्मरणीय
विद्यासागर,
जिन्होंने बँगला भाषा का
संस्कार किया है!
स्वयं ‘उपक्रमणिका’ के रचयिता जन्मान्तर
रहस्य के फेर में पड़कर ‘नर’ शब्द का रुप नहीं बता पा रहे हैं! आश्चर्य की बात है!
मैं स्तम्भित रह गया।
अगले दिन भी वह छात्र
शब्दरुप सही ढंग से नहीं बता पाया।
किन्तु उसे सजा देने की
प्रवृत्ति मेरी नहीं हुई।
जी में आया, प्रणाम करुँ-
अश्रुजल से उनके चरणयुगल
धो डालूँ।
विद्यासागर की यह दशा!
जब तक मैंने उसे पढ़ाया, उसे सजा नहीं दे पाया-
स्वयं को रोक लेता था।
फलस्वरुप चौथी कक्षा ये
आगे वह बिलकुल नहीं बढ़ पाया।
मेरी ट्यूशनी गयी।
सौभाग्य से,
अन्यत्र एक जगह
किरानीगिरी मिल गयी, वहीं चला गया।
***
प्रायः पाँच वर्षों के
बाद मेरे नये कार्यस्थल पर विद्यासागर के साथ फिर भेंट हुई। सारी बातें मैंने
सुनी। पढ़ाई-लिखाई छोड़कर कुछ समय के लिए वह शौकिया थियेटर में रम गया था।
स्त्री-भूमिका में वह न कि अच्छा अभिनय कर लेता था! मेडल मिला है। सम्प्रति किन्तु
वह लाईफ-इन्श्योरेन्स का एजेण्ट है। अगर मैं अनुग्रह कर उसकी कम्पनी में-
मेरी आँखें भींग गयीं।
साध्यातीत होने पर भी
कुछ कुछ रकम इन्श्योरेन्स में लगाया।
फिर आज वह आया था।
चेहरा अच्छा-खासा भद्र
और भारी हो गया था। बताया, इन्श्योरेन्स की दलाली से वह कुछ खास नहीं कर पाया, इसलिए प्राइवेट से
होम्योपैथी पढ़कर वह डॉक्टर बन गया है और इसी शहर में प्रैक्टिस करने का निर्णय
लिया है। मैं उसका ध्यान रखूँ।
यथासाध्य रखूँगा-
प्रतिश्रुति दिया मैंने।
निष्प्रयोजन समझकर दो
खबरें मैंने उसे नहीं दी। दोनों खबरें निम्न प्रकार हैं-
1. स्वामी चिन्मयानन्द
चौर्यापराध में जेल की चक्की पीस रहे हैं।
2. मैं क्रिश्चियन हो गया
हूँ।
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आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्म दिवस : अनंत पई और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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