मिस्टर मुखर्जी कब जो हमारे
अड्डे में आकर शामिल हो गये थे, ठीक से याद नहीं। सिर्फ इतना ही
याद है कि स्वर्गीय मधु मामा एक दिन उनको हमारे अड्डे में लाये थे। उसके बाद से
बीच-बीच में वे धूमकेतु की तरह हमारे अड्डे में आना-जाना करते थे। उनका घनिष्ठ
परिचय हममें से कोई नहीं जानता।
आदमी में कुछ खसियत तो थी।
उनकी बातचीत सुनकर लगता था,
मानो सारी दुनिया उनकी
मुट्ठी में है। चाहने पर वे उसे चूर-चूर कर सकते हैं; चूर भी कर सकते हैं- जेब में भी
डाल सकते हैं।
अक्सर चुटकी बजाकर वे कहते,
”यह सब मैं थोड़े केयर
करता हूँ- समझे!“
समझते तो सब थे।
मुखर्जी ऊँचे दर्जे के एक
मिथ्यावादी हैं- इस मुद्दे पर हमलोगों के बीच कोई मतभेद नहीं था। लेकिन हममें से
कोई भी मुखर्जी की बातों का प्रतिवाद नहीं करता था। नहीं करता था,
क्योंकि उनकी मिथ्या
बातें भी सुनने में अच्छी लगती थीं। इस मामले में वे जन्मजात आर्टिस्ट थे।
रूग्ण, अनाहार-क्लिष्ट चेहरा। शेविंग का
अभाव चेहरे पर सुस्पष्ट। शरीर पर अधमैला साहेबी पोशाक। सुनने में आया कि विलायत हो
आये हैं, दुनिया के बहुत सारे देश घूम चुके हैं- खुद ही कहते थे यह सब। वे
निरे मूर्ख नहीं थे- यह उनकी बातचीत से ही पता चलता था। एकदिन खुद ही उन्होंने कहा
था कि वे डबल एम.ए. हैं। तीन बार प्रोफेसरी करके फिर छोड़ चुके हैं- इत्यादि।
एकदिन वे बता रहे थे-
”महात्माजी के साथ उसदिन भेंट
हुई- ट्रेन में। थर्ड क्लास के एक कोने में बैठकर तकली घुमा रहे थे- मुझे देखकर
धीरे-से मुस्कुराये। शायद अफ्रिका के दिन याद आ गये। जब वे अफ्रिका गये थे,
मैं तब वहीं था- खूब
छनती थी हमदोनों की! देखा, उन्होंने पहचान लिया है मुझे।
आगे बढ़ा। अफ्रिका के वे दिन याद आ गये। सोचा, जरा हास्य किया जाय। बोला- ‘महात्माजी,
आपने जो सारे देशवासियों
को निरामिष होने के लिए कहा है, इसके दूसरे पहलू पर भी कभी विचार
किया है? सभी यदि आपकी बात मान लें, तो एक और गम्भीर समस्या उठ खड़ी
होगी, यह आपने सोचा है?’
”महात्माजी बोले,
‘कौन-सी समस्या?’
”मैंने कहा,
‘बकरी समस्या। उन्हें
नहीं खाने से इस कृषि-प्रधान देश में तो सर्वनाश हो जायेगा। बकरी एकबार जिस पौधे
को मुँह लगाती है, उसका तो बस रफा-दफा! एक-एक बकरी हर साल कितने बच्चे देती है,
पता है आपको?’“
यहाँ तक बात करके मुखर्जी बोल
पड़े, ”एक्सक्यूज
मी, मुझे अभी चलना होगा।
बाहर वाले कमरे के टेबल पर पर्स छोड़ आया हूँ, उसमें हजार रुपये का एक चेक है।
हालाँकि क्रॉस्ड है, फिर भी- “
मिस्टर मुखर्जी ने प्रस्थान किया।
कोलकाता के किस अँचल में वे रहते
थे- कोई नहीं जानता था। कोई कहता- बालीगंज, कोई बताता- बेलेघाटा। भवेश,
पानू-जैसों का दृढ़
विश्वास था कि बहूबाजार अँचल में ही कहीं रहते हैं वे।
अगले दिन ससंकोच मैंने उनसे पूछा
था, ”मिस्टर
मुखर्जी, आपका डेरा कहाँ है?“ हँसकर मेरी पीठ थपथपा कर कहा था
उन्होंने, ”मंगल ग्रह में अभी तक जमीन नहीं खरीद पाया हूँ। इसी पुरानी पृथ्वी
पर अब तक रहना पड़ रहा है, यही अफसोस है। काश्मीर कहिये,
स्विजरलैण्ड कहिये,
सब एक हैं। न्यूयॉर्क,
रोम,
प्राग,
बर्लिन,
टोक्यो,
यहाँ तक कि वोल्गा नदी
के तट पर भी बहुत दिन बिताये हैं मैंने- सभी जगह यही बूढ़ी पृथ्वी- एकरस। ऐरोप्लेन
के थोड़ा और उन्नत होते ही देखियेगा झुण्ड के झुण्ड लोग दूसरे प्लैनेट की ओर
भागेंगे। ...ओह, बाय जोव- उठना पड़ेगा- मिसेज नायडू के साथ एक एंगेजमेण्ट है- “
सबको विस्मित छोड़ उन्होंने
प्रस्थान किया।
उस दिन भी आये और उस दिन
बरट्रैण्ड रेल, बर्नाड शॉ, बॉल्डविन,
ब्लूम,
शेक्सपीयर,
गेटे,
सबकी धज्जियाँ
उड़ाते-उड़ाते अचानक उन्हें याद गया कि एक अमेरिकी करोड़पति की इकलौती बेटी के लिए
उड़ीसा की शिल्पकारी वाली नक्काशीदार बालियाँ भिजवाने का उन्होंने वादा कर रखा है।
परसों बालियों का जोड़ा उड़ीसा से रवाना हो चुका है। आज एयर मेल डे है,
अतः हमलोग उन्हें
एक्सक्यूज करें।
वे ज्यादा देर बिलकुल नहीं टिकते
थे।
धूमकेतु की तरह आते और चले जाते।
वे चालबाज,
मिथ्यावादी हैं- समझ में
आता था।
फिर भी, अच्छा लगता था।
हमारे अड्डे में उस दिन हल्के
जलपान का आयोजन था। उपलक्ष्य- पानू के प्रेम की अन्त्येष्टि क्रिया। पानू ने अपनी
प्रेमिका से विवाह कर डाला था। पास के एक रेस्तोराँ से देशी-विदेशी नाना प्रकार की
खाद्य-सामग्रियाँ मँगवायी गयी थीं। भवेश आवेग के साथ ”स्वर्ग से विदाई“
का पाठ कर रहा था,
विमल’दा दक्षिण चक्षु को कुंचित कर
क्लारियोनेट के ‘नी’
परदे पर सुर सृष्टि कर
वातावरण को करूण बनाने में प्रयासरत थे, विकास टेबल पर तबला बजा रहा था,
जगू गिलासों में शर्बत
डाल रहा था, पानू प्लेट सजा रहा था, मैं एक कोने में बैठकर कानी
उँगली का नाखून काट रहा था- अर्थात् माहौल जम चुका था।
ऐसे में मिस्टर मुखर्जी आकर
हाजिर।
पानू ने सोल्लास कहा,
”वाह,
अच्छा हुआ मिस्टर
मुखर्जी आ गये। आपका पता तो हमलोग ठीक-ठीक जानते नहीं थे कि आपको खबर दे सकें। आज
हमारे बीच जलपान की थोड़ी व्यवस्था है। मिस्टर मुखर्जी- “
हाथ जोड़कर मिस्टर मुखर्जी बोले,
”माफ कीजियेगा,
कुछ खा नहीं सकता। शाम
को एस्प्लेनेड मोड़ पर मिस म्यूल से भेंट हो गयी थी। ऑस्ट्रेलिया में मेरी टेनिस
पार्टनर थी। मुझे छोड़ा ही नहीं- फिर्पो में जाकर ठूँसना पड़ा उसके साथ। बहुत दिनों
से फिर्पो में गया नहीं था- आजकल बहुत डिटोरियेट हो गया है। मिस म्यूल के चक्कर
में पड़कर काफी रुपये निकल गये। क्या किया जाय! बहुत दिनों बाद मुलाकात हुई थी।
इसके अलावे, उस लड़की के प्रति मेरा सॉफ्ट कॉर्नर भी था उस जमाने में-
हाः-हाः-हाः- “
भवेश बोला,
”फिर भी कुछ तो लीजिये।
कम-से-कम एक गिलास शर्बत- “
”लेता। शर्बत ही क्यों,
और भी बहुत कुछ खाता।
किन्तु मिस्टर आचार्या के यहाँ आज मेरा निमंत्रण जो है। जैपेनो-एशियाटिक सेफ्टीपिन
कम्पनी एक फ्लोट करना है उनको। उसी का एक निदेशक बनने के लिए मुझे परेशान किये हुए
हैं आचार्या- ये सारे झमेले मेरे ही सिर पर आते हैं! मैं ठहरा आइडियलिस्ट आदमी,
चट-से ना भी नहीं कर
सकता। अच्छा उठता हूँ- एक्सक्यूज मी- “ मुखर्जी चले गये।
उस रोज अड्डा समाप्त होते-होते
काफी रात हो गयी।
ट्राम नहीं था- पदयान से ही लौट
रहा था।
कुछ दूरी पर एक अन्धेरी गली की
मोड़ पर ऐसा लगा, एक आदमी हाथ में एक बैग लटकाये ‘मदनानन्द मोदक’
की फेरी लगा रहा है। पास
जाकर देखा, मिस्टर मुखर्जी। दाहिने हाथ में एक पैकेट लेकर ”चाहिए, मदनानन्द मोदक“
की हाँक लगा रहे थे।
मुझे देखकर वे लेकिन जरा भी नहीं चौंके। सामान्य भाव से ही बोले,
”चीज अच्छी है। मेरा खुद
का उपकार हुआ है, इसलिए और दो-चार लोगों के उपकार के लिए मैंने यह व्रत ग्रहण किया
है। हाजमे की इससे अच्छी दवा और नहीं है। खाकर देखेंगे?“
मैं निर्वाक रह गया।
मेरी तन्द्रा टूटी,
जब मिस्टर मुखर्जी अपने
दाहिने हाथ से सहसा मेरे दोनों हाथ थामकर बोले, ”एक अनुरोध है- यह बात किसी को
नहीं बताईयेगा। सभी शायद बात को ठीक से नहीं समझ पायेंगे। सोचेंगे,
शायद अभाव में पड़कर ही- “
काफी दिन बीत गये। मिस्टर
मुखर्जी को फिर नहीं देखा। हमारे अड्डे में अब वे नहीं आते।
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सुन्दर कहानी और बेहतरीन अनुवाद। आभार।
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