(मूल बँगला कहानी: भोम्बल’दा)
हृष्ट-पुष्ट, गोल-मटोल चेहरा।
भेंट होते ही चेहरा स्निग्ध हँसी से खिल उठता। हाथ में एक चुटकी नस्सी लेकर उसे नाक के आस-पास लगाकर भोम्बल भैया सुबह से ही सड़क की मोड़ पर खड़े रहते और आने-जाने वाले परिचितों के साथ हँसी-खुशी बातचीत करते।
यह उनका रोज का नियम था।
“अरे मातुल, मछली कितने में लिये? जबर्दस्त मछली है! छह आना सेर? क्या कहते हो?”
“बाजार-भाव तो आठ आना है, मैंने लिया छह आने में।”
भोम्बल भैया ने विस्मय के साथ कहा, “डैम चीप!”
मातुल को इस बात का अहंकार था कि वह सस्ते में चीजें खरीद सकता है। कोई अगर इसका जिक्र करे, तो वह प्रसन्न होता था। मातुल के पास लेकिन रूकने का समय नहीं था- दफ्तर जाना था। वे तेज कदमों से चला गया।
“अरे भूतो, मछली खरीद कर ला रहे हो क्या- कितने में लिये? छह आना सेर? डैम- ”
भोम्बल भैया को बीच में रोकते हुए क्षोभ के साथ भूतो बोल पड़ा, “और मत पूछो भोम्बल’दा! हम-जैसे लोगों के लिए लोटा-कम्बल लेकर निकल पड़ना ही उचित होगा अब। छह आना सेर मछली? हमलोग भला खरीद कर खा सकते हैं?”
भोम्बल भैया ने आँखों को माथे पर चढ़ा लिया।
“छह आना सेर! क्या कहते हो! यह तो गला काट रहा है!”
भूतो बताने लगा, “आधा सेर लिया हूँ, यह देखो न- बहुत हुआ तो चार-पाँच पीस होगा। तीन आना पैसा अर्थात् एटीन पाईस लेकिन साफ हो गया।”
“बहुत बुरे दिन आ गये हैं, सही में।”
कहकर भोम्बल भैया ने आवाज के साथ नस्सी खींचा और अपने नास्याभिभूत चेहरे को यथासम्भव चिन्ताग्रस्त बनाने में सफल रहे।
“एक चुटकी हमें भी देना भोम्बल’दा। मेरी नाक में ही डाल दीजिए- मेरे तो दोनों हाथ बँधे हुए हैं- ”
“लो खींचो ठीक से- ”
भोम्बल भैया ने एक चुटकी नस्सी भूतो के नासारंध्र के सामने पकड़ा।
यथासम्भव उसे खींचकर भूतो चला गया।
कुछ दूरी पर अक्षयबाबू दिख गये।
अक्षय बाबू काँग्रेस-सेवक थे और पक्के खद्दरधारी थे। स्थानीय काँग्रेस कमिटी के प्रमुख थे और इस हैसियत से भाषण आदि देते रहते थे।
उनके पास आते ही हथेली से नस्य झाड़ते हुए भोम्बल भैया सोच्छ्वास बोल उठे, “अक्षयबाबू, कल आपका भाषण वाकई गजब का था- जिसे कहते हैं मर्मस्पर्शी। और यह कुरता तो खूब बनवाया है आपने- खद्दर है क्या? देखूँ जरा, वाह!- ”
कुरते के कपड़े को हाथों में लेकर जाँचते हुए भोम्बल भैया बोले, “वाह! यह तो मखमल-जैसा है। गजब चीज है!”
दोनों आँखें बड़ी-बड़ी करके मोटी आवाज में भविष्यवाणी वाले अन्दाज में अक्षयबाबू बोले, “अब चाहे मखमल हो या टाट हो, खद्दर ही हम लोगों का एकमात्र सम्बल है- इसके अलावे और कोई रास्ता नहीं है- ”
कहकर अचानक आँखों को छोटा कर लिया उन्होंने। यह उनका अपना अन्दाज था।
भोम्बल भैया ने छूटते ही कहा, “यह भी कोई कहने की बात है! देश के लिए आप लोग जिस तरह प्राणों की बाजी लगाते हैं, वह तो देश के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा रहेगा। बिना सैक्रिफाइस के कुछ होता है? खद्दर लेकिन गजब का है। खूब जँच रहा है आप पर- कितना करके गज है?”
“शायद डेढ़ रुपया। ठीक से याद नहीं।”
“दाम भी वैसा कुछ ज्यादा नहीं है- वाह!”
“छोड़ो, एक बार निवारण घोषाल के यहाँ जाना पड़ेगा। सुनने में आया है कि वह एण्टी-काँग्रेस प्रोपगण्डा कर रहा है।”
भोम्बल भैया कुरते का कपड़ा देख रहे थे, छोड़ दिया उन्होंने।
दयामय काका नजर आ गये। वे रास्ते के दूसरी तरफ से जा रहे थे। भोम्बल भैया ने हाँक लगायी, “काका, बिना देखे निकले जा रहे हो! हाल-समाचार तो ठीक है?”
नाटे कद के सिर से पाँव से ढके हुए दयामय काका सड़क पार करके आये। आकर बोले, “समाचार और क्या होगा? सूर्य-चन्द्र अभी भी उग रहे हैं- अच्छे में तो बस यही है। सारा बाजार छान मारकर भी एक जोड़ा गरम विलायती मोजा नहीं मिला भाई।”
“ये बात है?”
“हाँ भाई। पहले एक तरह का सफेद मोजा- थोड़ा पीलापन लिये हुए- जो आता था! एक जोड़ा खरीदते ही निश्चिन्त! पहन कर भी आराम था और चलता भी खूब था। पिछले के भी पिछले साल खरीदा था एक जोड़ा। खींच-तान कर दो साल पहन ही लिया। अब इस साल नहीं चलने वाला है। उस मोड़ पर एक बत्तमीज नौजवान ने कटपीस की दूकान खोली है, उसने तो लम्बा एक लेक्चर ही झाड़ दिया- विलायती चीजें नहीं खरीदनी चाहिए। यह क्या तुम मुझे सिखाओगे? उस तरह का देशी मोजा जरा बनाकर तो दिखाओ- दिखाओ मुझे!”
कहकर दुबले-पतले दयामय काका ने सामने थोड़ा झुककर दाहिने हाथ को चक्राकार घुमा दिया।
भोम्बल भैया मुस्कुराते हुए कुछ देर दयामय काका की तरफ देखते रहे। इसके बाद डिब्बी से एक चुटकी नस्सी निकालते हुए दबे स्वर में चुपके-चुपके बोले, “आजकल सारी बातें जोर-शोर से नहीं बोलनी चाहिए काका। अभी-अभी अक्षयबाबू गुजरे हैं यहाँ से। विलायती चीजों की कोई तुलना है? जिसको कहते हैं- लाजवाब। लेकिन किससे कहा जाय, बताईए। आजकल अक्षयबाबू की ही चलती है। जैसा समय आ गया है कि अच्छी चीजें मिलना भी दूभर हो गया है!”
भोम्बल भैया ने चेहरे का हाव-भाव ऐसा बनाया, मानो मन की गोपनीय बात को दयामय काका से साझा करके उन्हें भारी राहत मिली हो।
काका बोले, “अभी मैंने कहा न कि अच्छे में बस यही है कि सूर्य-चन्द्र अभी भी उग रहे हैं। चलता हूँ, देखूँ, मारवाड़ी लोगों की दूकानों में पता करुँ जरा। होने से इन्हीं लोगों के पास होगा। ठण्ड भी कुछ ज्यादा ही पड़ रही है भाई। नौकरी का कुछ हुआ?”
“कहाँ कुछ हुआ!”
काका गये।
आया फणी।
चौदहवर्षीय एक किशोर- स्थानीय स्कूल में पढ़ता है।
उसके साथ भोम्बल भैया ने कुछ देर फुटबॉल खेल पर चर्चा की और उसको भी एक चुटकी नस्सी दी। उसकी स्कूल टीम उस दिन छह गोल से हार गयी थी। इसका एकमात्र कारण रेफरी का पक्षपात था- इस विषय में भी वे उसके साथ एकमत हुए।
फणी के जाने के बाद आये टकले भट्टाचार्य।
भट्टाचार्य महाशय आजकल के लड़के-किशोरों की निन्दा करने में सदा उन्मुख रहते थे। आते ही उन्होंने आजकल के लड़के-लड़कियों की धर्महीनता एवं म्लेच्छाचार का प्रसंग उठाया और भोम्बल भैया का समर्थन प्राप्त किया।
कुछ देर में अति आधुनिक एक युवक विमल आया। धर्म ही राष्ट्र की उन्नति में सबसे बड़ी बाधा है तथा सस्ते में मुर्गी का अण्डा ही बिना मिलावट का श्रेष्ठ खाद्य है- विषयों पर उसने चर्चा की और वह भी भोम्बल भैया की सम्पूर्ण सहानुभूति हासिल कर सीटी बजाता हुआ चला गया।
इस प्रकार, बहुत लोग आये-गये।
नस्सी की चुटकी हाथ में लिये भोम्बल भैया सारी सुबह मोड़ पर खड़े होकर सभी के साथ सभी विषयों पर ही सहमत हुए।
भोम्बल भैया का मन जल के समान है- जब जिस पात्र में उसे रखा जाता है, तब तत्क्षणात् बिना किसी द्विधा के वह उसी पात्र का आकार ग्रहण कर लेता है। इसी के चलते उनकी नौकरी भी चली गयी थी। दफ्तर में बड़ेबाबू के समक्ष छोटेबाबू के सम्बन्ध में, और छोटेबाबू के सामने बड़ेबाबू के सम्बन्ध में ऐसी बातें भोम्बल भैया सरल मन से खोल देते थे कि दोनों ही उनसे बुरी तरह नाराज हो गये- फलस्वरूप नौकरी चली गयी।
भोम्बल भैया सबका मन रखते हुए बातें करते थे, लेकिन आश्चर्य की बात कि कभी किसी का मन नहीं जीत पाये। सबकी बातों का समर्थन करते, लेकिन कोई भी मानो उनको महत्व नहीं देता था। यहाँ तक कि अपनी गृहिणी भी नहीं। घर में सभी प्रकार के आचरण को समर्थन देने के कारण तथा परस्पर विरोधी बातें बोल जाने के कारण भोम्बल भैया प्रायः रोज ही गृहिणी की झिड़की सुनते थे और विमूढ़ होकर चुप बैठ जाते थे। कभी-कभी इन बातों को लेकर इतनी अशान्ति पैदा होती थी कि भोम्बल भैया घर से बाहर निकल कर गंगा के किनारे जाकर अकेले चुपचाप बैठ जाते थे।
उस समय भोम्बल भैया के चेहरे को देखकर सचमुच बहुत कष्ट होता था।
उनके तरल मन को मानो कहीं भी, कभी भी आश्रय नहीं मिल रहा हो।
असहाय विपन्न चेहरा।
दूर गंगा के उस पार क्षितिज की ओर देखते हुए बैठे रहते।
सरल गोल-मटोल चेहरा विमर्ष।
हँसी नहीं।
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